वांछित मन्त्र चुनें

कृ॒षन्नित्फाल॒ आशि॑तं कृणोति॒ यन्नध्वा॑न॒मप॑ वृङ्क्ते च॒रित्रै॑: । वद॑न्ब्र॒ह्माव॑दतो॒ वनी॑यान्पृ॒णन्ना॒पिरपृ॑णन्तम॒भि ष्या॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kṛṣann it phāla āśitaṁ kṛṇoti yann adhvānam apa vṛṅkte caritraiḥ | vadan brahmāvadato vanīyān pṛṇann āpir apṛṇantam abhi ṣyāt ||

पद पाठ

कृ॒षन् । इत् । फालः॑ । आशि॑तम् । कृ॒णो॒ति॒ । यन् । अध्वा॑नम् । अप॑ । वृ॒ङ्क्ते॒ । च॒रित्रैः॑ । वद॑न् । ब्र॒ह्मा । अव॑दतः । वनी॑यान् । पृ॒णन् । आ॒पिः । अपृ॑णन्तम् । अ॒भि । स्या॒त् ॥ १०.११७.७

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:117» मन्त्र:7 | अष्टक:8» अध्याय:6» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:10» मन्त्र:7


बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कृषन्-इत्) खेती करता हुआ-खेत जोतता हुआ ही (फालः) फालवान्-हलवाला किसान (आशितं कृणोति) अपने को अन्नभोक्ता बनाता है (चरित्रैः-यन्) चलने के साधनों से चलता हुआ (अध्वानम्) मार्ग को (अपवृङ्क्ते) पार करता है-तै करता है, न कि बैठा हुआ (ब्रह्मा वदन्) ब्राह्मण प्रवचन करता हुआ (अवदतः) न बोलनेवाले-न प्रवचन करनेवाले से (वनीयान्) अधिक सम्भजनीय है, सत्सङ्ग करने योग्य है (आपिः) समीपवर्ती सम्बन्धी जन (पृणन्) अन्नादि से तृप्त करता हुआ (अपृणन्तम्) न तृप्त करते हुए न देते हुए को (अभिष्यात्) अभिभव करता है, नीचे कर देता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - हल आदि साधन रखनेवाला किसान खेत जोतता हुआ खेती करता हुआ अपने को अन्न का भोक्ता बनाता है। हलादि साधन होते हुए खेती न करता हुआ किसान अपने को अन्नवान् नहीं बनाता है, चलने के साधन रखता हुआ-उनसे मार्ग को तै करता है-पार करता है न कि चलने के साधन होते हुए न चलते हुए पार करता है, विद्वान् प्रवचन करता हुआ न प्रवचन करनेवाले से श्रेष्ठ और सत्सङ्ग करने योग्य है, इसी प्रकार सम्बन्धी समीपी-जन अपने अन्नादि से तृप्त करता हुआ, न तृप्त करनेवाले के ऊपर हो जाता है-सम्मान का पात्र बन जाता है-अर्थात् अन्न धनादि होते हुए उससे दूसरों को तृप्त करना चाहिये ॥७॥
बार पढ़ा गया

ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (कृषन्-इत् फालः-आशितं-कृणोति) कृषिं कुर्वन् फालवान् हलवान् कृषक आत्मानमन्नभोक्तारं करोति न तु ऋषिमकुर्वन् (यन्-चरित्रैः-अध्वानम्-अपवृङ्क्ते) गच्छन् जनश्च चलनसाधनैर्मार्गमप पारयति न तु खल्वगच्छन् (वदन् ब्रह्मा-अवदतः-वनीयान्) प्रवचनं कुर्वन् ब्राह्मणः न प्रवचनमकुर्वतो सम्भजनीयः सङ्गमनीयः (पृणन्-आपिः-अपृणन्तम्-अभि स्यात्) अन्नादिना तर्पयन् समीपवर्ती सम्बन्धी जनो न तर्पयन्तमभिभवति ॥७॥